लखनऊ में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की बड़ी रैली के बाद समाजवादी पार्टी (सपा) ने अपनी रणनीति में बड़ा बदलाव किया है। सपा ने मायावती को छोड़कर सीधे बसपा के राष्ट्रीय समन्वयक आकाश आनंद पर निशाना साधा है। अखिलेश ने कहा- आकाश आनंद की जरूरत बसपा की बजाय भाजपा को ज्यादा है। ये वही अखिलेश यादव हैं, जिन्होंने बसपा से आकाश के निकाले जाने पर मायावती पर आरोप लगाए थे कि उन्होंने ये निर्णय भाजपा के दबाव में लिया है। अखिलेश अब उसी आकाश पर हमला क्यों बोल रहे हैं? क्या अखिलेश यादव को उनके पीडीए (पिछड़ा-दलित-अल्पसंख्यक) के दरकने का खतरा है? आकाश के सक्रिय होने से क्या सपा को युवा वोटरों के खिसकने का डर है? पढ़िए ये रिपोर्ट… 9 अक्टूबर को बसपा की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती ने कांशीराम परिनिर्वाण दिवस पर लाखों की भीड़ जुटाकर सियासी दलों को सकते में ला दिया है। यूपी में जो लोग बसपा को राजनीतिक रूप से समाप्त मान रहे थे, उनका नजरिया भी बदला है। मायावती ने इस रैली में भाजपा की बजाय सपा–कांग्रेस खासकर उनके पीडीए पर सबसे अधिक वार किया। दूसरा- उन्होंने 29 साल के अपने भतीजे को संकेतों में पार्टी का भविष्य बताते हुए ये अपील भी कर दी कि ‘जैसे मुझे कांशीराम ने बढ़ाया था, उसी तरह मैं आकाश को बढ़ा रही हूं। मुझे विश्वास है कि बहुजन समाज ने जैसा साथ मेरा दिया, उसी तरह का सहयोग आकाश का करेंगे।’ अब मायावती की इसी रणनीति से सपा–कांग्रेस को अपने पीडीए के समीकरण बिगड़ने का खतरा महसूस होने लगा है। सपा–कांग्रेस के लिए पीडीए का नारा 2024 के लोकसभा चुनाव में संजीवनी साबित हुआ था। तब दोनों दलों ने गठबंधन में सूबे की 43 सीटें जीत ली थी और भाजपा को लगातार तीसरी बार खुद के बूते बहुमत हासिल करने के सपने को तोड़ दिया था। पीडीए की रणनीति को बचाने के लिए सपा हमलावर
वरिष्ठ पत्रकार सुरेश बहादुर सिंह कहते हैं- विपक्षी पार्टी कोई भी रैली या सभा करती हैं तो अमूमन सत्ता में बैठी सरकार और उससे संबंधित पार्टी पर निशाना साधती हैं। लेकिन, मायावती ने 9 अक्टूबर के कार्यक्रम में इसके उलट भाजपा खासकर योगी की तारीफ कर दी। उन्होंने भाजपा की आलोचना भी की तो पूर्ववर्ती केंद्र में रही सरकार की। उनके निशाने पर सपा–कांग्रेस और उनके पीडीए का नारा ही सबसे अधिक रहा। मायावती ने भाषण के दौरान कहा- सपा का चरित्र दोगला है। सपा ने 2012 से 2017 के दौरान दलित महापुरुषों के नाम से बने जिले, शिक्षण और मेडिकल संस्थाओं के नाम बदल डाले थे। अब सत्ता से बाहर हैं तो वे पीडीए का सहारा ले रहे हैं। यही कारण रहा कि सपा मुखिया अखिलेश यादव ने रैली के तुरंत बाद मायावती के इस बयान पर तंज कसा था। सपा–कांग्रेस ने 2024 के लोकसभा चुनाव में पीडीए का नारा और ‘संविधान खतरे में है’ का मुद्दा बनाकर यूपी में 43 प्रतिशत से अधिक वोट बटोरे थे। लोकनीति-सीएसडीएस सर्वे के मुताबिक तब सपा गठबंधन के पक्ष में नॉन-जाटव दलितों का 56% और जाटवों का 25% वोट गया। बसपा को जाटवों का 44% और नॉन-जाटव का 15% वोट मिला था। शेष दलितों का वोट भाजपा गठबंधन को मिला था। बसपा के सक्रिय होने, खासकर भतीजे आकाश आनंद को यूपी में सक्रिय करने की मायावती की घोषणा से सपा–कांग्रेस गठबंधन को अपनी पीडीए की रणनीति दरकती दिख रही है। उनकी राजनीति के केंद्र में रहे 21 प्रतिशत दलित वोट के फिसलने का डर सताने लगा है। आकाश के सक्रिय होने से युवा वोटरों के दरकने का भी खतरा
राजनीतिक विश्लेषक सैय्यद कासिम के मुताबिक- 2022 के विधानसभा चुनाव में 18 से 29 वर्ष के युवा वोटरों की संख्या 22 प्रतिशत थी। 2027 के विधानसभा चुनाव में भी ये लगभग 23–24 प्रतिशत रहने की उम्मीद है। आकाश की उम्र 29 वर्ष है। जबकि सपा प्रमुख अखिलेश यादव और भाजपा के सीएम सहित दोनों डिप्टी सीएम की उम्र 50 वर्ष से अधिक है। ऐसे में युवा वोटरों के बीच आकाश एक आकर्षण होंगे। 9 अक्टूबर के कार्यक्रम में भी बड़ी संख्या में दलित, ओबीसी सहित दूसरे समाज के युवा पहुंचे थे। अखिलेश को डर है कि युवा वोटरों को रिझाने में आकाश सफल हुए तो 2027 के चुनाव को त्रिकोणीय करने में बसपा सफल हो जाएगी। 2017 में त्रिकोणीय लड़ाई में ही भाजपा यूपी की सत्ता में बड़ी बहुमत के साथ लौटी थी। तब भाजपा को 40 प्रतिशत, बसपा को 22 और सपा को 21 प्रतिशत वोट मिले थे। 2022 में जब बसपा कमजोर हुई तो सपा का वोटबैंक बढ़कर 38 प्रतिशत पहुंच गया। तब बसपा को 12.88 प्रतिशत और भाजपा की अगुआई वाले एनडीए को 44 प्रतिशत के लगभग वोट मिले थे। हालांकि सपा प्रवक्ता आजम खान त्रिकोणीय लड़ाई को अपनी पार्टी के लिए फायदेमंद मानते हैं। कहते हैं कि भाजपा को हमेशा द्विपक्षीय लड़ाई का फायदा मिला है। तब भाजपा को ध्रुवीकरण करने में आसानी होती है। जैसे ही लड़ाई त्रिकोणीय होगी, तब चुनाव मुद्दों पर शिफ्ट हो जाएगा। हम तो चाहते हैं कि प्रदेश में त्रिकोणीय लड़ाई हो। 2012 में त्रिकोणीय लड़ाई में सपा ने 29 प्रतिशत वोट पाकर सरकार बना ली थी। जबकि 2022 में द्विपक्षीय लड़ाई में 38 प्रतिशत वोट पाकर भी सपा विपक्ष में है। सपा की आकाश पर हमला बोलने की रणनीति कितनी कारगर
सपा ने मायावती की बजाय आकाश पर निशाना साधकर क्या सही रणनीति बनाई है। इस पर हमने राजनीतिक विश्लेषकों के साथ–साथ पार्टी के प्रवक्ताओं से बात की। उनके जवाब से साफ है कि सपा की रणनीति साफ है। वह 2024 की तरह बसपा और आकाश को भाजपा की रणनीति का हिस्सा साबित करके दलित वोटबैंक को अपने पाले में रोकना चाहती है। वरिष्ठ पत्रकार सुरेश बहादुर सिंह कहते हैं कि 2027 के विधानसभा चुनाव में वही पार्टी सत्ता में आएगी, जो 21 प्रतिशत दलित वोटरों को ज्यादा से ज्यादा समर्थन बटोर पाएगी। सपा–बसपा में इसी कारण दलित वोट बैंक को लेकर ये टकराहट देखने को मिल रहा है। बसपा के 9 अक्टूबर के कार्यक्रम में उमड़ी भीड़ से सपा को लगता है कि दलित वोटर एक बार फिर अपनी मूल पार्टी की ओर शिफ्ट हो सकता है। मायावती ने इस बार भतीजे आकाश को भी सक्रिय कर दिया है। वे खुद बिहार चुनाव के बाद यूपी के अलग–अलग मंडलों में कैडर कैम्प करेंगी। जबकि आकाश रैली और सभाएं करेंगे। इसके जवाब में सपा ने अपने दलित नेताओं को मोर्चे पर लगाया है। दलितों के बीच सक्रियता बढ़ाने और उनके उत्पीड़न के मुद्दों को मुखरता से उठाने के निर्देश दिए हैं। रायबरेली में वाल्मीकि युवक की हत्या का मामला इसका ताजा उदाहरण है। सपा सांसद प्रिया सरोज ने तो बसपा प्रमुख मायावती के भाषण पर तुरंत प्रहार किया था। प्रिया ने कहा कि अगर मायावती जी चाहतीं तो पिछले 8 साल से सत्ता में बैठी योगी सरकार से बेरोजगारी से लेकर दलितों और पिछड़ों पर अत्याचार के मुद्दे उठा सकती थीं। क्या सपा को इस रणनीति का फायदा मिलेगा। इसका जवाब देते हुए राजनीतिक एक्सपर्ट एवं जेएनयू के प्रोफेसर विवेक कुमार कहते हैं कि दलित वोटर 2024 में भ्रमित होकर सपा के पाले में गया था। दलित आज भी मायावती को ही अपना आदर्श मानते हैं। बस वो इंतजार में थे कि मायावती पुराने दौर की तरह सक्रिय हो जाएं। अब तो मायावती के साथ आकाश भी सक्रिय हो चुके हैं। भाजपा सपा–बसपा दोनों पर जातिवादी राजनीति करने का आरोप लगाती है। भाजपा प्रवक्ता राकेश त्रिपाठी कहते हैं कि–दोनों पार्टियों ने विकास के मुद्दों को दूर रखते हुए सिर्फ पिछड़ों व दलितों के नाम पर वोट लिया है। सत्ता में रहे तो सिर्फ उन्होंने अपना बैंक बैलेंस ठीक किया है। जबकि भाजपा ने ओबीसी–दलितों के जनधन खाते खुलवा कर वोटबैंक की राजनीति की बजाय उनका बैंक बैलेंस बढ़ाने का काम किया है। दोनों पार्टियां घबराहट में है। सपा तो 2019 के लोकसभा में बसपा के साथ मिलकर भी भाजपा को चुनाव नहीं हरा पाई थी। अब एक–दूसरे पर हमला कर सिर्फ वोटबैंक की राजनीति कर रही हैं। ———————- ये खबर भी पढ़ें- मायावती 23 साल बाद फिर फील्ड में उतरेंगी:हर मंडल में जाएंगी, चंद्रशेखर की तर्ज पर भतीजे आकाश करेंगे यात्राएं लखनऊ में 9 अक्टूबर को कार्यकर्ताओं की भीड़ देखकर बसपा पूरे जोश में है। 69 साल की बसपा सुप्रीमो मायावती को नई उम्मीद दिख गई है। वह 23 साल बाद जमीन पर उतरकर मोर्चा संभालने की तैयारी में हैं। वह खुद 23 साल बाद मंडलों में जाकर कैडर के साथ कैंप करेंगी। इससे पहले 2002 तक मायावती मंडलों में जाती थीं। मायावती क्या नया मैसेज देना चाहती हैं? पढ़ें पूरी खबर…
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